Mirza Ghalib

क्या गिला, क्या शिकवा, क्या मशवरा कीजिए जाने वाले ने अगर ठान ही ली है, तो उसे जाने भी dejiye…  दिलों के अरमानों को कुछ इस अंदाज में बयां करने वाले फेमस शायर मिर्जा गालिब को शायरी की दुनिया का कोहिनूर कहा जाता है….  जिंदा एहसासों ke  शायर मिर्जा गालिब अपनी कलम से शायरी को एक अलग मुकाम पर ले जाते थे….. सालों पहले लिखे गए उनके द्वारा शेर आज की पीढ़ी के बीच में मकबूलियत हासिल किए हुए hai …. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी की सबसे खास बात ye  rahi,  इसमें एक आम इंसान का दर्द साफ तौर पर नजर आता था…. कागज के पन्नों पर मिर्जा गालिब ऐसे अल्फ़ाज़ उड़ेल देते jise सुनने वाले के दिल से wah निकल जाए,  उन्हें दर्द के साथ अपने जज्बातों को जाहिर करना आता ,  गालिब उस दर्द को पेश करने में माहिर थे…  गालिब का पूरा जीवन दुखों और मुश्किलों के बीच बीता। मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के काला महल में हुआ । उनके पूर्वज भारत में नहीं बल्कि तुर्की में रहा करते the । पिता नवाब आसिफ uddula की फौज मैं शामिल hoye  पिता के फौज में में होने की वजह से मिर्जा गालिब इधर-उधर घूमते रहे। मिर्जा गालिब के पिता ने इसके बाद हैदराबाद में अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहां काम करने लगे। जब मिर्जा गालिब की उम्र 5 साल की rahi  उस वक्त एक लड़ाई के दौरान उनकी पिता की शहादत हो गई. गालिब को उस वक्त उनके चाचा ने संभाला,  पिता की मौत के बाद गालिब को बचपन में ही तमाम दुख और मुश्किलों का सामना करना पड़ा….  Wo अपने पिता की मौत के सदमे से उबर भी नहीं PAYE  तब तक उन्हें एक और गम मिला जब wo  9 साल ke  हुई… तो उनके चाचा की भी मौत हो गई। इसी के चलते मिर्जा गालिब का ज्यादातर जीवन  उनके ननिहाल में गुजरा। फारसी की शुरुआती पढ़ाई मिर्जा गालिब ने आगरा me उस वक्त की मशहूर जानकार मोलवी से हासिल क…. मिर्जा गालिब का दिमाग इतना ज्यादा तेज था,  कि वो  कुछ ही टाइम के अंदर ज़हूरी जैसे फारसी कवियों को खुद से पढ़ने लगे।इसी waqat  पर मिर्जा गालिब  की दिलचस्पी शायरी की तरफ बढ़ने लगी। फारसी zuban में गज़ले लिखने लगे। जब wo 13 साल के हुए तो उनकी शादी करवा दी गई। शादी के कुछ सालों के बाद गालिब  दिल्ली में रहने लगे।wo  कभी भी मुश्किलों से घबराए नहीं बल्कि उन्होंने खुद को मजबूत बनाया,  फारसी की पढ़ाई के दौरान ही उनका रुझान शायरी की तरफ से और उन्होंने छोटी सी उम्र से शेर -o- शायरी लिखना शुरू कर दिया,,  एक बार गालिब ने जब लिखने की शुरुआत की to  जिंदगी के आखिरी दिनों तक कलम को अपने हाथों में थामे रखा। उनकी शायरी से उस दौर की राजा और नवाब को  इस कदर mutasir rahe,  कि wo उनको अपने दरबार में अक्सर बुलाया करते । लिखने का जुनून मिर्जा गालिब के ऊपर इस कदर हावी हो गया , कि 25 साल की उम्र में लगभग उनका 2,000 शेरों का एक kitab  तैयार हो गई,  गालिब को पसंद करने वाले एक शख्स ने मिर्जा गालिब की कुछ शेर मशहूर शायर “मीर तकी मीर”  को सुनाएं तो उन्होंने कहा अगर इस लड़के को कोई काबिल उस्ताद मिल जाए तो ye  लाजवाब शायर बन जाएगा। गालिब की लोगों ने बहुत आलोचना की लेकिन इसके चलते थे उन्होंने कभी लिखना नहीं छोड़ा और 1 दिन ऐसा bhi aaya  कि wo मशहूर ho gye ….  अपने नाना के घर पले- बड़े मिर्जा गालिब का मिजास रइसों वाला हो गया था ,  उनका ध्यान अपने कपड़े पर ज्यादा रहता । मिर्जा गालिब ne अपनी शायरी में बेहद सरल शब्दों का प्रयोग किया ,, jiski wajah se  गालिब को वर्तमान  me उर्दू का जन्मदाता कहा जाता है,,,  मिर्जा गालिब 19वीं और 20वीं शताब्दी में उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर के रूप में mashhoor hoye  उनकी चर्चा दूर-दूर तक फैली,  यहां तक कि अरब और अन्य राष्ट्रों में भी wo अधिक लोकप्रिय हुए,,,  ग़ालिब की शायरी में एक तरफ  चाहत और एक taraf  कशिश अंदाज़ पाया जाता है,,,  जो कुदरती sunne aur  पढ़ने walon के मन को छू लेता है। साल 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह जफर ने मिर्जा गालिब को दीवार -उल- मुल्क के किताब से नवासा aur iske  बाद में उन्हें "मिर्जा नोशा"का खिताब भी मिला।  saal  1857 की क्रांति के बाद गालिब की जिंदगी पूरी तरह से बदल गई,  स्वतंत्रता संग्राम ke dauran  मुगल सेना को ब्रिटिश राज से हार मिली,,  इसके बाद बहादुर शाह को अंग्रेजों ने रंगून भेज दिया…  जिससे मुगल दरबार नष्ट हो गया jiski wajah se गालिब को पैसे मिलना band ho gye … इस दौरान मिर्ज़ा ग़ालिब के पास खाने के भी पैसे नहीं बचे. Wo  छोटे-छोटे समारोह में जाकर अपनी शायरियों से लोगों को प्रभावित करने लग गए. मिर्ज़ा में अपने जीवन की बेहतरीन शायरियाँ  इसी  dauran  में लिखी aur इसी wajah  मिर्ज़ा को आम लोगों का शायर भी कहा गया. 15 फरवरी 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब की मृत्यु हो गई..  लेकिन हैरत की बात ye rahi  कि मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे महान कवि की मृत्यु होने के दो दिन baad ye खबर पहली बार उर्दू अखबार अकमल-उल-अख़बार में छपी. Mirza galib aur unki patni  की कब्र ek dosre ke pass दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में बनायीं गयी.